अब्दुल जलील
ग़ज़ल
करीब तीस साल पहले रची गयी रचना आपके साथ साझा कर रहा हूँ।
जब भी बहती है हवा उनके दामन की
याद आती हैं मुझे बहार सावन की
नहीं है कोई गिला तेरी बेवफाई का
तीस उठती है मगर मेरे दिल में जलन की
कब से क़दमों में तेरे नज़रें बिछी हैं
कभी तो होगी इधर बहार गुलशन की
उम्र गुजरी है मेरी अश्कों के भंवर में
रंजो ग़म से सिली है पैराहन मेरे कफ़न की
जाम अब तोड़ दिया मेरी नज़र ने
ये खुमारी है तेरे वडा कुहन की
इस क़दर उन पे "जलील" शबाब छाया है
हर कली है पशेमां इस दुनियाए चमन की
- अब्दुल जलील
याद आती हैं मुझे बहार सावन की
नहीं है कोई गिला तेरी बेवफाई का
तीस उठती है मगर मेरे दिल में जलन की
कब से क़दमों में तेरे नज़रें बिछी हैं
कभी तो होगी इधर बहार गुलशन की
उम्र गुजरी है मेरी अश्कों के भंवर में
रंजो ग़म से सिली है पैराहन मेरे कफ़न की
जाम अब तोड़ दिया मेरी नज़र ने
ये खुमारी है तेरे वडा कुहन की
इस क़दर उन पे "जलील" शबाब छाया है
हर कली है पशेमां इस दुनियाए चमन की
- अब्दुल जलील
ग़ज़ल
दिल में याद लिए तेरी बैठा हूँ मैं
फ़क़त तसव्वुर में तेरे दुनिया भुलाये बैठा हूँ मैं
खंजर सी तेरी नज़रें वो हुस्न कातिलाना
अंजामे वफ़ा के जख्म लिए बैठा हूँ मैं
इक तबस्सुम की खातिर सौ जिल्लतें सही हैं
उजड़े हुए गुलशन में ख़ार लिए बैठा हूँ मैं
तेरे हुस्न मुजस्सिम को मैं अब कहाँ छिपाऊं
शबे हिज्राँ में दिल चाक किये बैठा हूँ मैं
रहमत का तेरी साइल मगर मुफलिस नहीं हूँ मैं
टूटे हुए पलकों के गौहर लिए बैठा हूँ मैं
कश्ती को पार कर दे ऐ नाखुदा तू मेरी
अताए ग़म का समंदर लिए बैठा हूँ मैं
कहीं शिर्क हों न जाए ऐ आरजुए परस्तिश
तस्वीर तेरी दिल में सजाये बैठा हूँ मैं
कोई उनसे जाके कह दे ये हाले दिल "जलील"
सब कुछ लुटा बर्बाद हुए बैठा हूँ मैं
- अब्दुल जलील